स्वतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें , आज़ादी के 65 वर्षों के उपरान्त आज क्या हम सचमुच आज़ाद हैं? क्या हमे आज़ादी है अपनी अभिव्यक्ति की? क्या हमे आज़ादी है अपने देश मैं कहीं भी रहने और जीने की? क्या हमे आज़ादी है अपने हक के लिए आवाज़ उठाने की? क्या हमे आज़ादी है आज़ादी से जीने की ... ?अगर नहीं तो फिर इस आज़ादी के मायने क्या हैं? हमारे लिए 15 अगस्त मतलब क्या सिर्फ राश्ट्रीय छुट्टी होना ही है ? ये आज़ादी हमे तोहफे मैं नहीं मिली, ये हमे उन लाखों शहीदों की कुर्बानियों के बाद मिली है जिन्होने अपनी जान दी सिर्फ और सिर्फ हमे आज़ाद देखने के लिए, जिनमे से कई तो गुमनामी की मौत मारे गए और कुछ जो आज भी स्वतंत्रता सेनानी प्रमाणित करने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं ताकि सरकार उनकी दी हुई कुर्बानियों के एवज मैं उन्हे पेंशन दे सकें और वो अपनी जिंदगी गुज़ार सके और गर्व से कह सकें की हाँ उन्होने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी, लेकिन आज उनको भी गर्व की जगह शर्मिंदगी महसूस होती होगी की आखिर हम लडे भी तो किन लोगों के लिए जिनको न तो आज़ादी का मतलब मालुम है और न ही उसकी कीमत का अंदाजा हैं. पर ये इस देश की विडम्बना है की हम आज़ाद तो हुए पर अपनों के हाथों ही फिर गुलाम हो गए और आज हम अपनों की ही गुलामी झेल रहे हैं , लेकिन इस गुलामी में जीने मैं वो दर्द नहीं है एक मजबूरी है और एक लाचारी है शायाद इसीलिए हमे उस दर्द का एहसास नहीं हैं और हम उसी लाचारी और मजबूरी मैं जीए जा रहे हैं, हम सोचते हैं सिर्फ बर्दाश्त करो मगर आवाज़ मत उठाओ क्यूंकि हमारा क्या जा रहा है , सब चल रहा है ना , हम सब चाहते हैं की भगत सिंह, चंदर शेखर आज़ाद जैसे बच्चे फिर से पैदा तो हों लेकिन वो हमारे यहाँ न हों किसी पडोसी के यहाँ हो जायें, हम कुर्बानियां देना नहीं चाहते लेकिन चाहते हैं की कोई तो कुर्बानी दे , दरअसल हम सब मर चुके हैं और हमारी आत्मायें भी मर चुकी हैं और हम सिर्फ खाने और पहनने के लिए जी रहे हैं, हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है न देश के प्रति और न ही समाज के प्रति, और जो लोग अन्ना या रामदेव की तरह कुछ साहस भी करते हैं तो हम उनको भी स्वार्थी कह कर उनका मज़ाक उड़ाते हैं क्यूंकि हम खुद अक्षम हैं और हममे वो साहस और जज्बा नहीं है , हम डरते हैं और इसी तरह जीना चाहते हैं क्यूंकि आदत पड़ चुकी है और जब हम अपनी आदत ही नहीं बदल सकते तो इस देश को बदलने की बात कहाँ से करंगे ... ज़रा सोचिये