समाज सेवक की विडम्बना
समाज सेवक की पत्नी ने कहा ‘तुम भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में शामिल मत हो जाना, वरना पड़ेगा पछताना।
बंद हो जायेगा मिलना कमीशन, रद्द हो जायेगा बालक का स्कूल में हुआ नया एडमीशन,
हमारे घर का काम ऐसे ही लोगों से चलता है, जिनका कुनबा दो नंबर के धन पर पलता है,
काले धन की बात भी तुम नहीं उठाना, मुश्किल हो जायेगा अपना ही खर्च जुटाना,
यह सच है जो मैंने तुम्हें बताया, फिर न कहना पहले क्यों नहीं समझाया।’
सुनकर समाज सेवक हंसे और बोले ‘‘मुझे समाज में अनुभवी कहा जाता है, इसलिये हर कोई आंदोलन में बुलाता है,
अरे, तुम्हें मालुम नहीं है आजकल क्रिकेट हो या समाज सेवा हर कोई अनुभवी आदमी से जोड़ता नाता है,
क्योंकि आंदोलन हो या खेल परिणाम फिक्स करना उसी को आता है, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में मेरा जाना जरूरी है, जिसकी ईमानदारी से बहुत दूरी है, इसमें जाकर भाषण करूंगा, अपने ही समर्थकों में नया जोशा भरूंगा,
अपने किसी दानदाता का नाम कोई थोडे ही वहां लूंगा, बस, हवा में ही खींचकर शब्द बम दूंगा,
इस आधुनिक लोकतंत्र में मेरे जैसे ही लोग पलते हैं, जो आंदोलन के पेशे में ढलते हैं,
भ्रष्टाचार का विरोध सुनकर तुम क्यों घबड़ाती हो, इस बार मॉल में शापिंग के समय तुम्हारे पर्स मे ज्यादा रकम होगी
जो तुम साथ ले जाती हो, इस देश में भ्रष्टाचार बन गया है शिष्टाचार, जैसे वह बढ़ेगा, उसके विरोध के साथ ही
अपना कमीशन भी चढ़ेगा,
आधुनिक लोकतंत्र में आंदोलन होते मैच की तरह एक दूसरे को गिरायेगा, दूसरा उसको हिलायेगा,
आधुनिक लोकतंत्र में आंदोलन होते मैच की तरह एक दूसरे को गिरायेगा, दूसरा उसको हिलायेगा,
अपनी समाज सेवा का धंधा ऐसा है जिस पर रहेगी हमेशा दौलत की छाया।’’
आजकल यूँ देखने को मिलता है, जब चुनावी माहौल हो तो हल गली नुक्कड़ पर कोई फूल खिलता है,
कुछ स्वयंभू समाजसेवक पोस्टरों में दिखाई देते हैं किन्तु कोई नहीं जानता समाज में वो अपना स्थान कहाँ रखते हैं ,
बरसाती मेंढक की तरह फुदक फुदक कर आते हैं, चुनावी बदल छंटते ही गायब हो जाते हैं,
पोस्टरों से दीवारें पटी पड़ी हैं, हाथ जोड़े समाज सेवक और सेविकायें उनमे खड़ी हैं,
शुभकामनाओं और नारों से हैं दीवारें बुलंद, नेताओं की फोटो ज़्यादा चेहरे पे मुस्कान मंद,
यूँ कहैं नेताओं की फ़ौज खड़ी है न्यारी, जितना मोटा चंद उतनी टिकट पक्की तुम्हारी ....
आजकल यूँ देखने को मिलता है, जब चुनावी माहौल हो तो हल गली नुक्कड़ पर कोई फूल खिलता है,
कुछ स्वयंभू समाजसेवक पोस्टरों में दिखाई देते हैं किन्तु कोई नहीं जानता समाज में वो अपना स्थान कहाँ रखते हैं ,
बरसाती मेंढक की तरह फुदक फुदक कर आते हैं, चुनावी बदल छंटते ही गायब हो जाते हैं,
पोस्टरों से दीवारें पटी पड़ी हैं, हाथ जोड़े समाज सेवक और सेविकायें उनमे खड़ी हैं,
शुभकामनाओं और नारों से हैं दीवारें बुलंद, नेताओं की फोटो ज़्यादा चेहरे पे मुस्कान मंद,
यूँ कहैं नेताओं की फ़ौज खड़ी है न्यारी, जितना मोटा चंद उतनी टिकट पक्की तुम्हारी ....