कोई भी धर्म इतना छोटा नहीं होता की किसी स्वयंभू धर्मगुरु के अच्छा या बुरा होने से उसकी विशालता और सर्व्भोमिकता पर उसका असर पडे। धर्म के प्रति हमारी आस्था और विश्वास या तो नहीं है या फिर सुद्रढ़ है और अगर वो नहीं है तो किसी के कहने से भी नहीं होगा और अगर मज़बूत है तो किसी व्यक्ति के बुरा होने से तो डगमगाएगा नहीं। और ये धर्म की आड़ लेकर बुराई हमेशा से ही चलती रही है कभी राक्षस के वेश में और कभी साधू रूप में छुपे राक्षस के वेश में। सीता का हरण भी रावण ने राक्षस रूप में न करके साधू के रूप में किया था। आज भी यही सब हो रहा है। हमारे विश्वास और हमारी आस्था को एक साधू के वेश में ही लूटा जा रहा है और ये सिर्फ हमारी कमज़ोरी है क्यूंकि हम लोग ही किसी का भी बिना सोचे समझे अन्धानुकरण करने लगते हैं। ये अनुसरण नहीं है, ये आस्था नहीं है, ये भक्ति नहीं है, ये सिर्फ देखा देखि और सुनी सुने बातों के कारण एक अन्धानुकरण है जो दुखदाई है। बुराई जब भी सामने आती है वो अच्छाई या धर्म की आड़ लेकर आती है और हमे ढांप लेती है, हमे ऐसे में अपने विवेक से काम लेना चाहिए और इस धर्म और अधर्म के भेद को समझना चाहिए नहीं तो ना जाने कितने ही ऐसे स्वयंभू धर्मरक्षक हमारे विश्वास और हमारी आस्था का यूँ ही खून करते रहंगे।