25 अगस्त, 2013

धर्म का राजनीतिकरण

धर्म का राजनीतिकरण करके जिस प्रकार से उसका दुरूपयोग इस देश में हो रहा है वो दुखद है। इसी राजनीतिकरण ने धर्म की परिभाषा को पूर्णतया बदल कर रख दिया है और आज ये एक पहचान न रहकर एक मुद्दा बन गया है जोड़तोड़ की राजनीति का। अब हमारी भावनायें और उससे जुडी पहचान कोई मायने नहीं रखती। हिन्दू हिन्दू नहीं रहे, मुसलमान मुसलमान नहीं रहे, सिख सिख नहीं रहे और इसाई इसाई बल्कि अब हमे वोट बैंक के तौर पर जाना जाता है। इस मंदिर और मस्जिद की लड़ाई में इंसान और इंसानियत दोनों ही मर गए हैं।  हमारे भगवान् और अल्लाह भी सोचते होंगे की हम तो एक ही थे लेकिन इन लोगों ने ही हमारे छत्तीस टुकडे कर दिए और अपनी ही लाचारी पर मन मसोस कर रह जाते होंगे
एक आम इंसान अपनी की हुई एक छोटी सी गलती के लिए कितने प्राश्चित करता है लेकिन ये राजनेता तो अपने किये हुए पाप के बोझ तले भगवान् को भी इतना दबा देते हैं की इनसे लडने की उसकी हिम्मत भी टूट जाती है और वो भी अपने आप को मजबूर और ठगा सा पाता है।  कहीं राम के नाम पे तो कहीं रहीम के नाम पे, मरता आम इंसान ही है और भगवान् आंखे मूंदे सब देखता है और सोचता है की मैं क्या बनाने चला था और क्या बना बैठा...