10 जनवरी, 2020

दीपिका पादुकोण, लेफ्ट या राइट

बॉलीवुड, नाम भी चुराया हुआ है किंतु ये वो इंडस्ट्री है जो हमेशा लोगों के दिलो पर राज करती रही है, वैसे तो राजनीति और बॉलीवुड का संबंध वर्षों पुराना है, यूँ भी कह सकते हैं कि आजादी की लड़ाई दोनो ने मिल कर लड़ी, कौन भूल सकता है आनंदमठ सरीखी फ़िल्म को, किन्तु सच ये भी है कि बॉलीवुड केवल बिकाऊ है, यहाँ हर चीज़ की कीमत तय है, यहां कलाकार भी बिकते है और कलंकार भी, और फिर इन बेचारों की व्यक्तिगत मजबूरियां भी है और व्यावसायिक मजबूरियां भी, अब करोड़ो रूपये लगाकर एक फ़िल्म बनती है, फिर उस फिल्म में पैसा अंडरवर्ल्ड का लगा हो तो वो दबाव कई गुना बढ़ जाता है, तो लाज़मी है कि फ़िल्म को कैसे भी करके कमाऊ बनाना है, इससे कोई फर्क नही पड़ता कि फ़िल्म किस विषय वस्तु पर आधारित है, वैसे तो विडंबना ये है कि आज से नही बल्कि दशकों से राजनीति एवं बॉलीवुड एक दूसरे के पर्याय रहे है, अभिनेता नेता बन रहे हैं एवं नेता भी आजकल अच्छा अभिनय कर लेते हैं, दोनो का ही मकसद नाम शौहरत एवं दौलत है, चलो खैर अब इसी के चलते आजकल राजनीतिक घटनाक्रम से ये लोग भी अपने को अवसर अनुसार जोड़ कर अपनी दाल में तड़का लगा लेते हैं, फिर चाहे वो सर्जिकल स्ट्राइक हो, 26/11 मुम्बई हमले, 1993 बम ब्लास्ट, कारगिल युद्ध, गुजरात दंगे, देश का विभाजन या फिर कठुआ गैंग रेप से लेकर ये लक्ष्मी पर हुआ एसिड अटैक, ये विषय वस्तु की बात है, किन्तु अब बात आती है इनसे राष्ट्रीय स्तर पर सामंजस्य बिठाने की तो इसके लिए फ़िल्म से जुड़ी PR यानी पब्लिक रिलेशन और पब्लिसिटी टीम काम करती है, वो तय करते है कि किस अवसर पर क्या करना है, कहते हैं ना बदनाम होंगे तो क्या नाम ना होगा, यानी जैसे अपने अक्षय कुमार है वो कनाडा के नागरिक हो के भी अपने काम और आचरण के आवरण में देशभक्त है ओर उसके उलट उनकी अर्धांगिनी ट्विंकल खन्ना सिक-क्युलर यानी बीवी की तरफ से फिल्में मिलती रहेगी और अक्षय की तरफ से देश और दुनिया मे वाह वाही, यही दीपिका पादुकोण और रणवीर सिंह भी कर रहे हैं, अब देखो फ़िल्म का विरोध करने वालों ने फ़िल्म को ज़्यादा पब्लिसिटी दे दी, यानी जो मोदी विरोधी कभी फ़िल्म नही देखते वो भी अब इसे देखेंगे, या वो बेचारे गरीब JNU के छात्र जो अपनी 100 रु बढ़ी हुई फीस नही दे सकते क्योंकि उनका बाप महीने के सिर्फ 6000 रु कमाता है वो भी अब 600 रु ख़र्चके इसे देखेगा, चलो छोड़ो लेकिन एक चीज़ को तो समझ ही लो कि ये बॉलीवुड का पिछले 3 सालों में सरकार का विरोध।बढ़ने का प्रमुख कारण आज़ादी या अभिव्यक्ति की आज़ादी नही बल्कि नोटबन्दी से हुई काली कमाई पर रोक है, दूसरा जो यूपी की समाजवादी सरकार सैफई महोत्सव में इन भाँडो को नचवा के बदले में मोटी रकम के साथ साथ साहित्य कला परिषद के अंतर्गत अनेक भाँडो को 50000रु महीना पेंशन देती थी वो सब योगी सरकार ने आते ही बंद करवा दी तो बवासीर होना तो जायज़ है, कुछ कमर अब इन बड़े फ़िल्म निर्माताओं की इंटरनेट वेब सीरीज ने भी तोड़ दी है, तो भैया सब पैसे का खेल है, क्यों अपना खून फूंकते हो, वैसे दीपिका जी फ़िल्म में नदीम का नाम बदल कर राजेश रख देने से मेघना गुलज़ार को आत्मसंतुष्टि तो हो सकती है किंतु सच्चाई तो दुनिया जानती है कि लक्ष्मी को लूटने वाला कोई नदीम ही हो सकता है, राजेश नही...

21 दिसंबर, 2019

Citizen Amendment Act (#CAA)

2019 के लोकसभा चुनाव के समय सातों सीटें जीतने का दावा करने वाले केजरीवाल ने हारने के बाद एक बयान दिया था कि " हम 48 घंटे पहले तक सातों सीटें जीत रहे थे लेकिन अचानक मुस्लिम वोट कांग्रेस की तरफ बंटने से सीन बदल गया" ये जो आज दिल्ली में भटके हुए नौजवान दंगा और आगजनी कर रहे हैं ये उसी ध्रुवीकरण का नतीजा है, इसकी शुरुआत इन्होंने संसद में कैब का विरोध करके की, इसकी एक अलग रूपरेखा तैयार की और फिर साजिशन दिल्ली चुनाव से पहले मुसलमानों को आप नेताओ द्वारा भड़काना, बरगलाना और दंगे करवा कर उनके समर्थन में आना ये सब उसी साजिश के तहत हुआ... प्लान तो इनका ये है कि इस दंगे में कुछ विशेष वर्ग के लोग हताहत हो और फिर उन्हें भी मुआवजे और सरकारी नौकरी के साथ पुचकारा जाए, ताकि मुस्लिम वर्ग का सिम्पथी वोट हांसिल किया जा सके.. यूँ तो कांग्रेस भी इसमें उनके साथ ही है क्योंकि चाहे कितना भी केजरीवाल अपनी सूरत दिखा दिखा कर या मुफ्तखोरी का लालच देकर दिल्ली वालों को लुभाने की कोशिश कर ले या फिर अब प्रशांत किशोर जैसे चुनावी रणनीतिकार का सहारा ले ले किन्तु अंतर्मन में वो भी जानता है कि इस बार सरकार में वापसी इतनी आसान नही है, इसीलिए वो एक बार फिर दबे पांव कांग्रेस के कंधे पर चढ़ने की कोशिश में लगा हुआ है और इस समय तो उसकी धुर विरोधी शीला दीक्षित भी अब नही है... यानी कांग्रेस और केजरीवाल दिल्ली में भाजपा को दूर रखने और अपना राजनीतिक अस्तित्व बनाये रखने की कवायद में लगे हुए है। अब ये दिल्ली की जनता को समझना है कि ये दंगो की राजनीति हमे कहाँ लेकर जा रही है, साम, दाम, दंड, भेद की राजनीति में पारंगत कांग्रेस भी केजरीवाल की आड़ में अपनी खोई ज़मीन तलाश रही है, अमानतुल्ला खान, इसहाक खान, मतीन अहमद, आसिफ खान जैसे लोग तो केवल इनका मोहरा हैं, और इनके प्यादे ये दंगाई जिनको लड़ने के लिए आगे किया जा रहा है और पकड़े जाने पर जमानती वकीलों की फौज दी जा रही है, किन्तु दिल्ली का अपना एक कल्चर है... "सानू की" और "सब चंगा सी"...

07 दिसंबर, 2019

बलात्कारियों को फांसी दो

हर साल औसतन 32000 बलात्कार देश मे होते है, उनमें से कुछ ही बदनसीब हैं जिनकी लड़ाई हमारे सामने आ पाती है, अनेक केस ऐसे हैं जिनमे बलात्कार की शिकार महिला का कानूनी प्रक्रिया से भी बलात्कार होता है, मानसिक शोषण होता है, शरीर के साथ साथ आत्मा तक छलनी हो जाती है, हमारी लचर औऱ लाचार कानूनी प्रक्रिया, न्याय प्रणाली, पैसे के लिए बिकते गवाह, सबूत, वकील, पुलिस सब मिलकर न्याय प्रक्रिया पर हमारा विश्वास तोड़ देते है, देश के इतिहास में आजतक केवल एक बलात्कारी को फांसी दी गयी थी, जानते हो कब ? 15 साल पहले 2004 में धनंजय चटर्जी को, क्या उससे पहले या बाद में बलात्कार नही हुए ? जिस निर्भया के नाम से सरकार ने महिला सुरक्षा के लिए विशेष कानून बनाया, निर्भया फण्ड बनाया आज भी वो निर्भया स्वयं अपने लिए न्याय के इंतज़ार में बैठी है, फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट बनाई गई किन्तु केवल न्याय प्रणाली अपने आप मे क्या करेगी, जब राज्य सरकारें बलात्कारियों के मानवाधिकारों के नाम पर फ़ाइल रोक के बैठ जाये, अपराध के मामले में पीड़ित से ज़्यादा अपराधी आश्वस्त होता है कि वो कानून की पेचीदगियों से बच जाएगा। आज जब पुलिस किसी अपराधी का एनकाउंटर करती है तो देशव्यापी खुशियां मनाई जाती है, देश की जनता अपराधी की धर्म, जाति को छोड़कर उसकी विकृत मानसिकता के कारण उससे घृणावश अपने आक्रोश को खुशियों में व्यक्त करती है, ऐसा ही तब जब किसी नेता को थप्पड़ पड़ता है तो होता है, आखिर क्यों ? क्योंकि अपराधियो का ऐसे सरे आम मारा जाना और नेताओं का थप्पड़ खाना दोनो ही आम जनता के आक्रोश को दर्शाते हैं, और इसके लिए हमारी कानूनी प्रक्रिया का दुरुस्त होना ज़रूरी है, जब एक आतंकवादी के लिए, या लोकतंत्र खतरे में होने की दुहाई देकर गठबंधन की सरकारें बनाने के लिए आधी रात को भी मिलार्ड को उठा कर कोर्ट खुलवाई जा सकती है तो न्याय पर भरोसा बनाये रखने के लिए आम लोगों के लिए भी इस प्रक्रिया को बदलने की ज़रूरत है, तभी समाधान होगा, अन्यथा देश को तालिबानी कानून की ज़रूरत महसूस होने लगेगी और सरकारों व न्यायपालिका से भरोसा उठ जाएगा। आज यदि एक निर्भया, या एक प्रियंका का विभत्स बलात्कार और हत्या हमारा इतना खून उबाल सकती है, सरकार के खिलाफ विरोध और विद्रोह प्रदर्शन करवा सकती है, तो सोचो देश के बंटवारे के समय लाखो निर्भया और प्रियंकाओं का बलात्कार हुआ, उन्हें नोचा गया, लूटा गया और ज़िंदा जला दिया गया... उंस समय के लोगों का भी खून खौला था और फिर भी लोग पूछते हैं नाथूराम गोडसे को गुस्सा क्यों आया था ? गांधी की हत्या क्यों हुई थी...

03 दिसंबर, 2019

एक और निर्भया

देश दुनिया मे रोज़ रोजाना हज़ारों लाखों शारीरिक व मानसिक बलात्कार होते हैं, शरीर के साथ साथ आत्मा को तार तार कर दिया जाता है, विभत्स, नृशंस और क्रूर तरीके उस बलात्कारी हत्यारे की विभत्स मानसिकता को दर्शाते हैं की समाज और कानून का डर उनके ज़ेहन में है ही नही, आखिर क्यों हम इतने लचर हो जाते हैं क्यों हमारी राजनीतिक मजबूरियां, कानूनी पेचीदगियां, बड़ी बिंदी वाले लोगों की अमानवीयता या टुकड़े टुकड़े गैंग की असहिष्णुता इस संवेदनशील मुद्दे पर हावी हो जाती है। निर्भया कांड के समय एक आक्रोश पूरे देश ने देखा था, किन्तु आज भी उसकी आत्मा इंसाफ के इंतज़ार में तड़प रही है, बलात्कारी का धर्म, जाति एवं उम्र ना देख कर उस जुर्म की वीभत्सता को देखा जाना चाहिए, किन्तु निर्भया के सबसे क्रूर हत्यारे को हमारी सरकार 10000 रु एवं सिलाई मशीन दे कर पुनः ऐसे राक्षसों को समाज मे जगह देते है। आज जब वैसे ही सैकड़ो बलात्कारों में से एक डॉ प्रियंका की बर्बरता पूर्वक बलात्कारियों ने ज़िंदा जलाकर हत्या कर दी तक फिर से वही रोष देश मे फैला है, किन्तु कोई कोई बदकिस्मत प्रियंका ही किस्मत से इंसाफ की लड़ाई लड़ पाती है, कोई कोई अनु दुबे ही अपनी अंतरात्मा की आवाज़ बुलंद कर पाती है, किन्तु यदि किसी एक निर्भया को भी इंसाफ मिला होता तो आज शायद ये प्रियंका ना होती, शायद कठुआ या उन्नाव ना हुए होते, शायद नरेला या रांची ना हुए होते, दिल्ली देश की राजधानी है जहां की राजनीति पूरे देश पर असर दिखाती है, किन्तु यहीं के नेता अपनी राजनीतिक मेहत्वकांगशाओ के लिए आज तक भी निर्भया के दोषियों की फ़ाइल दबा के रखते हैं, एक तरफ केजरीवाल एक हत्यारे बलात्कारी को सिलाई मशीन और 10000 रु देता है तो दूसरी तरफ उसी की स्वाति मालीवाल अनशन के नाटक करती है, क्या यही संवेदनशीलता है इन दो कौड़ी के नेताओ में, आज मुद्दा गरम देख कर निर्भया के एक बलात्कारी की फांसी की सज़ा के लिए लंबित फ़ाइल को पास किया जाता है, किन्तु देश को तोड़ने वाले टुकड़े टुकड़े गैंग को आज भी ये जनाब संजीवनी दिए बैठे हैं, क्या हमारी फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट ऐसे काम करती है ? सरकारें बनाने, आतंकियों को छुड़वाने, नेताओ की जमानतें लेने के लिए आधी रात भी कोर्ट खुलती है किंतु किसी निर्भया, नैना साहनी, गुड़िया, या प्रियंका के लिए नही...

30 नवंबर, 2019

राजनीती में नैतिकता एवं अनैतिकता

कमाल की राजनीति है, अहम, अहंकार और महत्वकांक्षाओं के चलते नेता, इंसान और इंसानियत से परे एक परालौकिक सी दुनिया गढ़ लेते हैं, हर किसी को ये भ्रम हो जाता है कि वो ही राजनीति का किंग मेकर है, आम जनता अपने बीच से ही आम लोगो को अपना प्रतिनिधि चुनती है किन्तु यही प्रतिनिधि जीतते ही स्वयं को उसी जनता का भाग्यविधाता समझ बैठते है, फिर होता है लोकतंत्र के नाम पर खेल, सत्ता का खेल, राजनीतिक उठा पटक सत्ता की मलाई का, कीमत लगाई जाती है, बड़े बड़े पांच सितारा होटलों में, रिसोर्ट में अय्याशी के अड्डे खोले जाते है, बड़ी बड़ी लक्सरी गाड़ियां तो छोड़ो बस भी मर्सेडीस की लायी जाती हैं, कौन क्या पद लेगा, कौन सा कमाई वाला मंत्रालय कौन लेगा, किसका घोटाला दबाया जाएगा, किसका चिट्ठा खोला जाएगा.. भाजपा सत्ता प्राप्त कर नहीं पाई मुझे उसके दुःख से ज्यादा भाजपा ने अंत तक सत्ता गलत हाथों में न जाये उसके लिए जो संघर्ष किया उसका गर्व है.. शरद पवार ने अजित पवार के द्वारा डील करने की ही कोशिश की थी कि 37000 करोड़ के सिचाई घोटाले, सुप्रिया सुले ओर पवार की जांच एजेंसियों के द्वारा जांच को रोका जाए, लेकिन मोदी ने जांच एजेंसियों पर दबाव बनाने से मना कर दिया, इसीलिए अजित मीटिंग में नही गया, सोशल मीडिया में अफवाह उड़वाई गयी कि केस में क्लीन चिट दी गई है, लेकिन फिर स्वयं ED ने साफ कर दिया कि ऐसा कुछ नही होगा, जांच अपने तरीके से आगे बढ़ेगी, उसी के बाद अजित पवार ने इस्तीफा दिया और उसी मर्यादा को रखते हुए फडणवीस ने भी इस्तीफा दे दिया ये नैतिकता है... कूटनीति को कुत्तानीति कहकर उसका उपहास उड़ाने वालों की नैतिकता आज पुनः हिलोरे मारने लगी है आज सबको नैतिकता, आदर्श व् शुचिता जैसे शब्द अचानक से बड़े प्रिय लगने लगे हैं, रामायण में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम द्वारा बाली पर बाण चलाने के बाद यही सब कुछ बाली को भी याद आया था और उसने भी भगवान श्रीराम से नैतिकता की दुहाई देकर उनके आचरण पर प्रश्न किया था, तब श्रीराम का उत्तर था कि तुमने कब नैतिकता का पालन किया जो आज तुम उस नैतिकता की दुहाई दे रहे हो तुमने अपने भाई का राज्य छीन लिया उसकी पत्नी तक छीन ली और उसे राज्य से विस्थापित होने के लिए विवश कर दिया इसके बाद तुम्हारे द्वारा नैतिकता की बात करना पाखंड से अधिक कुछ नहीं.. फिर महाभारत में भी युद्ध की समाप्ति के बाद जब भीष्म बाणों की शैया पर थे और कृष्ण उनसे मिलने आए तो भीष्म से भी रहा ना गया और उन्होंने कृष्ण से प्रश्न कर ही दिया कि जिस प्रकार से मुझे, गुरु द्रोण, कर्ण और दुर्योधन को रणभूमि से हटाया गया क्या वह उचित था.. तब कृष्ण का उत्तर था आप अपनी प्रतिज्ञा की डोर से बंधे हुए हस्तिनापुर सिंहासन के साथ खड़े रहकर कौरवों द्वारा भीम को विष देने पर, लाक्षागृह में पांडवों को जलाकर मारने का षड्यंत्र रचने पर, द्यूतक्रीड़ा में छल से पांडवों का सब कुछ छीन लेने पर, कुलवधू द्रौपदी को भरी सभा में अपमानित करने पर और पांडवों को जबरन अज्ञातवास भेजने पर आप नैतिकता की अवहेलना कर उन्हें कौरवों के संग खड़े रहे अपनी प्रतिज्ञा से बड़े होने के कारण युद्ध भी आपने उसी अनैतिकता के प्रतीक कौरवों की ओर से किया ऐसे में नैतिकता के पालन का भार केवल पांडवों के शीश पर ही क्यों हो ? ऐसे अनेको उदाहरणो से इतिहास भरा पड़ा है, अटल बिहारी वाजपेई ने भी नैतिकता का पालन करते हुए मात्र 1 वोट से अपनी सरकार गिरते हुए देखी थी और भाजपा ने तो उसके बाद कई राज्यों और छेत्रिय दलों व् उनके नेताओं से धोखे खाए.. परंतु भाजपा जहां पर सत्ता में आई वहां विकास किया, केंद्र में आई तो राष्ट्र हित के कार्य किए, अटल बिहारी वाजपेई की सरकार हो या नरेंद्र मोदी की, एक भी घोटाले का दाग नहीं लगा, जबकि अन्य सरकारों ने घोटाले कर देश के खजाने लूटने में कीर्तिमान रच दिये, वहीं भाजपा में पूरे देश का विद्युतीकरण किया 10 करोड़ शौचालय बनवा दिए, सस्ते इलाज की सुविधा उपलब्ध कराई, गरीबों को आवास दिया, उनके घर गैस के चूल्हे लगवाए, आतंकवाद पर लगाम लगाई शत्रु पाकिस्तान को आर्थिक कंगाली की ओर धकेल दिया, पिछली सरकारों में 10% से अधिक रहने वाली महंगाई दर को नियंत्रित कर 4% तक लेकर आए, 11वें नंबर की अर्थव्यवस्था रही भारत को पांचवें नंबर पर ले आये, विदेशी मुद्रा भंडार अपने अब तक के उच्चतम स्तर पर पहुंचा दिया, नोटबंदी और जीएसटी जैसे कड़े व् सकारात्मक निर्णय लिए, 370 जैसा कलंक हटाया, राम मंदिर के निर्माण हेतु अपना अटॉर्नी जनरल सुप्रीम कोर्ट में उतार दिया और 500 सालों से संघर्ष कर रहे हिंदूओं के लिए राम मंदिर प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया, परंतु आज भी इन सभी सकारात्मक कार्यों की अवहेलना कर नैतिकता की बीन बजा रहे लोग भाजपा द्वारा पीडीपी संग गठबंधन पर छातियों पीटते दिख जाते हैं, और आज उन्हें वो शिवसेना नैतिक लग रही है जो भाजपा संग गठबंधन में चुनाव लड़ने के बाद मुख्यमंत्री पद की हवस में कांग्रेस और एनसीपी संग सरकार बना रही है, परंतु वह भाजपा अनैतिक लग रही है जिसने उसी एनसीपी संग गठबंधन कर सरकार बना ली, ऐसी दोहरे मापदंड वाली "नैतिकता" कहाँ से लाते हो महाराज ? जब सुभाष चंद्र बोस ने जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर से हाथ मिलाया था तब कांग्रेस और गांधी समेत कई अन्य लोगों ने भी ऐसे ही नैतिकता के प्रश्न उठाए थे, सुभाष चंद्र बोस का उत्तर था "अनैतिक रूप से भारत पर कब्जा कर बैठे अंग्रेजों से लड़कर भारत को स्वतंत्र कराने हेतु और भारत के हित के लिए तो मैं शैतान से भी हाथ मिला सकता हूं.... आज नैतिकता की दुहाई दे रहे उन महान विश्लेषकों, राजनीतिक विचारकों, बुद्धिजीवियों और ज्ञानियों को मेरा सुझाव है कि सत्ता में रहने पर भाजपा सरकार द्वारा किए गए कामों को देख लो, और अन्य सरकारों के किये कृत्यों से उनकी तुलना कर लो, उसके पश्चात ही नैतिकता की बीन बजाओ...