कोई भी धर्म इतना छोटा नहीं होता की किसी स्वयंभू धर्मगुरु के अच्छा या बुरा होने से उसकी विशालता और सर्व्भोमिकता पर उसका असर पडे। धर्म के प्रति हमारी आस्था और विश्वास या तो नहीं है या फिर सुद्रढ़ है और अगर वो नहीं है तो किसी के कहने से भी नहीं होगा और अगर मज़बूत है तो किसी व्यक्ति के बुरा होने से तो डगमगाएगा नहीं। और ये धर्म की आड़ लेकर बुराई हमेशा से ही चलती रही है कभी राक्षस के वेश में और कभी साधू रूप में छुपे राक्षस के वेश में। सीता का हरण भी रावण ने राक्षस रूप में न करके साधू के रूप में किया था। आज भी यही सब हो रहा है। हमारे विश्वास और हमारी आस्था को एक साधू के वेश में ही लूटा जा रहा है और ये सिर्फ हमारी कमज़ोरी है क्यूंकि हम लोग ही किसी का भी बिना सोचे समझे अन्धानुकरण करने लगते हैं। ये अनुसरण नहीं है, ये आस्था नहीं है, ये भक्ति नहीं है, ये सिर्फ देखा देखि और सुनी सुने बातों के कारण एक अन्धानुकरण है जो दुखदाई है। बुराई जब भी सामने आती है वो अच्छाई या धर्म की आड़ लेकर आती है और हमे ढांप लेती है, हमे ऐसे में अपने विवेक से काम लेना चाहिए और इस धर्म और अधर्म के भेद को समझना चाहिए नहीं तो ना जाने कितने ही ऐसे स्वयंभू धर्मरक्षक हमारे विश्वास और हमारी आस्था का यूँ ही खून करते रहंगे।
08 सितंबर, 2013
25 अगस्त, 2013
धर्म का राजनीतिकरण
धर्म का राजनीतिकरण करके जिस प्रकार से उसका दुरूपयोग इस देश में हो रहा है वो दुखद है। इसी राजनीतिकरण ने धर्म की परिभाषा को पूर्णतया बदल कर रख दिया है और आज ये एक पहचान न रहकर एक मुद्दा बन गया है जोड़तोड़ की राजनीति का। अब हमारी भावनायें और उससे जुडी पहचान कोई मायने नहीं रखती। हिन्दू हिन्दू नहीं रहे, मुसलमान मुसलमान नहीं रहे, सिख सिख नहीं रहे और इसाई इसाई बल्कि अब हमे वोट बैंक के तौर पर जाना जाता है। इस मंदिर और मस्जिद की लड़ाई में इंसान और इंसानियत दोनों ही मर गए हैं। हमारे भगवान् और अल्लाह भी सोचते होंगे की हम तो एक ही थे लेकिन इन लोगों ने ही हमारे छत्तीस टुकडे कर दिए और अपनी ही लाचारी पर मन मसोस कर रह जाते होंगे
एक आम इंसान अपनी की हुई एक छोटी सी गलती के लिए कितने प्राश्चित करता है लेकिन ये राजनेता तो अपने किये हुए पाप के बोझ तले भगवान् को भी इतना दबा देते हैं की इनसे लडने की उसकी हिम्मत भी टूट जाती है और वो भी अपने आप को मजबूर और ठगा सा पाता है। कहीं राम के नाम पे तो कहीं रहीम के नाम पे, मरता आम इंसान ही है और भगवान् आंखे मूंदे सब देखता है और सोचता है की मैं क्या बनाने चला था और क्या बना बैठा...
एक आम इंसान अपनी की हुई एक छोटी सी गलती के लिए कितने प्राश्चित करता है लेकिन ये राजनेता तो अपने किये हुए पाप के बोझ तले भगवान् को भी इतना दबा देते हैं की इनसे लडने की उसकी हिम्मत भी टूट जाती है और वो भी अपने आप को मजबूर और ठगा सा पाता है। कहीं राम के नाम पे तो कहीं रहीम के नाम पे, मरता आम इंसान ही है और भगवान् आंखे मूंदे सब देखता है और सोचता है की मैं क्या बनाने चला था और क्या बना बैठा...
24 अगस्त, 2013
महंगा प्याज़
प्याज़ न हुआ एक आफत ही हो गयी, अगर हमारे नेताओं को इतना ही ख़याल है तो फिर और भी ज़रुरत की बड़ी सारी चीजें हैं जो महंगी हैं उनकी भी दुकाने खोल लो ताकि हम लोगों को इसका फायदा मिले, पेट्रोल भी महंगा है, गैस भी महंगी है, बिजली पानी भी महंगा है, खाली प्याज़ खाकर कब तक जीयेंगे .. और इस देश मैं तो इमानदारी सबसे महंगी है और उसकी कीमत सबसे ज्यादा चुकानी पड़ती है उसकी भी किसी नेता की कोई दूकान है जहां से वो मिल सके उसकी तो सख्त ज़रुरत है...
27 मई, 2013
देश की अस्मिता पर हमला
ये भी एक विडम्बना है की नक्सालियों के द्वारा देश के कुछ नेताओं की हत्या की गयी और उसके लिए सभी छोटे से लेकर बडे नेताओं की प्रतिक्रिया फ़ौरन आ गयी, लेकिन तीन वर्ष पूर्व दंतेवाडा मै तीस सी आर पी ऐफ जवानो की नृशंस हत्या की गई किसी काग्रेसी या सोनिया गांधी के मुह से ऐक शब्द साहनभूति का कभी नही निकला। और तब क्या ये लोग देश के नागरिक या ईंसान नही थे? नेता की मौत लोकतंत्र पर हमला नहीं है लोकतंत्र पर हमला तो रोज होता है बलात्कार की हर घटना लोकतंत्र पर हमला है, हर एक घोटाला लोकतंत्र पर हमला है !क्या दिल्ली में में 7000 बेक़सूर सिखों का हुआ नसंहार लोकतंत्र पर हमला नहीं था? लोकतंत्र बचा कहाँ है लहूलुहान पड़ा हैअपनी अंतिम साँसे गिनता हुआ। एक नेता की मौत लोकतंत्र पर हमला बिलकुल नहीं है, हमारे देश के दिग्गज नेताओं की निष्ठां क्या सिर्फ उनकी पार्टी तक सीमित है ? उनकी पार्टी पर हमला देश की अस्मिता पर हमला है और स्वयं प्रधान मंत्री और सोनिया गाँधी तक जाकर उनसे मिलते हैं, ४ दिन पहले कश्मीर मैं भी आतंकी हमला हुआ और ४सैनिक मार दिए गए लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं, नक्सली हमले लगभग रोज़ होते हैं लेकिन आज वो आतंकी हमला क्यूँ हो गया ? जब खुद को लगती है न दर्द सिर्फ तभी होता है और महसूस भी होता है ...
04 मई, 2013
बोर्ड मेंबर का धन्दा
ये पैसा लेकर बोर्ड मेंबर बनाना कोई नयी बात नहीं है। ये सब काफी पहले से चलता आ रहा है। मैं भी कुछ ऐसे बोर्ड मेंबर्स को जानता हूँ जो यही काम करते हैं की कुछ पैसा लेकर लोगों को बेवकूफ बनाते हुए उन्हे किसी भी मंत्रालय मैं बोर्ड मेम्बर बनवा देते हैं जो की एक तरह से laisining करना ही है . आपको ढूँढने पर ऐसे ढेरों दलाल मिल जाएंगे जो की आपको लुभावने सपने दिखाते हैं जो दरअसल नेताओं के दलाल ही होते हैं। ये भी नेताओं का अपने चमचों को रिझाने और उनके द्वारा कमी करने का एक कहा जाए तो approved तरीका है। हर मंत्रालय में एक बोर्ड बनाया जाते था जिसका अर्थ था की जनता से लिए गए या समाज के कुछ प्रठिस्तित प्रतिनिधि लाकर उनके द्वारा सम्बंधित मंत्रालय के काम काज को सुधर जा सके और उनके सुझावों को लिया जा सके लेकिन अब ये सब न होकर ये एक हाई क्लास धन्दा बन गया है और अब बोर्ड मेम्बर बनानी के नाम पर सरेआम ये सब कुछ होता है, और हिंदुस्तान मैं सभी कुछ होता है और हमारी अंकों के सामने ही होता है लेकिन अगर कोई पकड़ा जाए तो चोर नहीं तो साहूकार तो है ही।
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